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Title: मेघवाल संत-1
Author: Unknown
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संत किसनदासजी रामस्नेही संप्रदाय के संत कवि रामस्नेही संप्रदाय के प्रवर्त्तक सन्त साहब थे। उनका प्रादुर्भाव 18 वीं शताब्दी में हुआ। रेण- राम...
संत किसनदासजी
रामस्नेही संप्रदाय के संत कवि

रामस्नेही संप्रदाय के प्रवर्त्तक सन्त साहब थे। उनका प्रादुर्भाव 18 वीं शताब्दी में हुआ। रेण- रामस्नेही संप्रदाय में शुरु से ही गुरु- शिष्य की परंपरा चलती अंायी है। नागौर जिले में रामस्नेही संप्रदाय की परंपरा संत दरियावजी से आरंभ होती है। ंसंत दरियावजी के इन निष्पक्ष व्यवहार एवं लोक हितपरक उपदेशों से प्रभावित होकर इनके अनेक शिष्य बने, जिन्होंने राजस्थान के विभिन्न नगरों व कस्बों में रामस्नेही-पंथ का प्रचार व प्रसार करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। इनके शिष्यों में संत किसनदासजी अतिप्रसिद्ध हुए।

संत किसनदासजी दरियावजी साहब के चार प्रमुख शिष्यों में से एक हैं। इनका जन्म वि.सं. 1746 माघ शुक्ला 5 को हुआ। इनके पिता का नाम दासाराम तथा माता का नाम महीदेवी था। ये मेघवंशी (मेघवाल ) थे। इनकी जन्म भूमि व साधना स्थली टांकला ( नागौर ) थी। ये बहुत ही त्यागी, संतोषी तथा कोमल प्रवृत्ति के संत माने जाते थे। कुछ वर्ष तक गृहस्थ जीवन व्यतीत करने के पश्चात् इन्होंने वि.1773 वैशाख शुक्ल 11 को दरियाव साहब से दीक्षा ली।

इनके 21 शिष्य थे। खेड़ापा के संत दयालुदास ने अपनी भक्तमाल में इनके आत्मदृष्टा 13 शिष्यों का जिक्र किया है, जिसके नाम हैं -1. हेमदास, 2. खेतसी, 3.गोरधनदास, 4. हरिदास ( चाडी), 5. मेघोदास ( चाडी), 6. हरकिशन 7. बुधाराम, 8. लाडूराम, 9. भैरुदास, 10. सांवलदास, 11. टीकूदास, 12. शोभाराम, 13. दूधाराम। इन शिष्य परंपरा में अनेक साहित्यकार हुए हैं। कुछ प्रमुख संत- साहित्यकारों को इस सारणी के माध्यम से दिखलाया जा रहा है। कई पीढियों तक यह शिष्य- परंपरा चलती रही।

संत दयालुदास ने किसनदास के बारे में लिखा है कि ये संसार में रहते हुए भी जल में कमल की तरह निर्लिप्त थे तथा घट में ही अघटा ( निराकार परमात्मा ) का प्रकाश देखने वाले सिद्ध पुरुष थे -

भगत अंश परगट भए, किसनदास महाराज धिन।
पदम गुलाब स फूल, जनम जग जल सूं न्यारा।
सीपां आस आकास, समंद अप मिलै न खारा।।
प्रगट रामप्रताप, अघट घट भया प्रकासा।
अनुभव अगम उदोत, ब्रह्म परचे तत भासा।।
मारुधर पावन करी, गाँव टूंकले बास जन।
भगत अंश परगट भए, किसनदास महाराज धिन।। -- भक्तमाल/ छंद 437

किसनदास की रचना का एक उदाहरण दिया जा रहा है -

ऐसे जन दरियावजी, किसना मिलिया मोहि।।1।।
बाणी कर काहाणी कही, भगति पिछाणी नांहि।
किसना गुरु बिन ले चल्या स्वारथ नरकां मांहि।।2।।
किसना जग फूल्यों फिरै झूठा सुख की आस।
ऐसों जग में जीवणों ज्यूं पाणी मांहि पतास।।3।।
बेग बुढापो आवसी सुध- बुध जासी छूट।
किसनदास काया नगर जम ले जासी लूट।।4।।
दिवस गमायो भटकतां रात गमाई सोय।
किसनदास इस जीव को भलो कहां से होय।।5।।
कुसंग कदै न कीजिये संत कहत है टेर।
जैसे संगत काग की उड़ती मरी बटेर।।6।।
उज्जल चित उज्जल दसा, मुख का इमृत बैण।
किसनदास वे नित मिलो, रामसनेही सैण।।7।।
दया धरम संतोष सत सील सबूरी सार।
किसनदास या दास गति सहजां मोख दुवार।।8।।
निसरया किस कारणे, करता है, क्या काम।
घर का हुआ न घाट का, धोबी हंदा स्वान।।9।।
इनका बाणी साहित्य श्लोक परिमाण लगभग 4000 है। जिनमें ग्रंथ 14, चौपाई 914, साखी 664, कवित्त 14, चंद्रायण 11, कुण्डलिया 15, हरजस 22, आरती 2 हैं। विक्रम सं. 1825 आषाढ़ 7 को टांकला में इनका निधन हो गया।

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  1. मेरी जानकारी में आया है कि मेघवंशी संतों के बारे में श्री डेनवाल जानकारी इकट्ठी कर रहे हैं. इस लेख का लिंक मैं उन्हें भेज दूँगा.

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  2. hello namaskar sir me meghval hu gujarat se me bhi aapne samaj ke kuch karna chahtahu



    gohil naresh

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